छत्तीसगढ़ के प्रमुख आदिवासी विद्रोह:- छत्तीसगढ़ राज्य में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक अनेक आदिवासी विद्रोह हुए, ज्यादातर आदिवासी विद्रोह बस्तर क्षेत्र में हुए जहाँ के आदिवासी अपनी अस्मिता की रक्षा के लिये विशेष सतर्क थे। इन विद्रोहों में एक सामान्य विशेषता यह थी।
• ये सभी विद्रोह आदिवासियों को अपने निवास क्षेत्र, भूमि व वन में हासिल परंपरागत अधिकारों को छीन जाने के विरोध में हुआ था।
• ये विद्राह आदिवासी अस्मिता और संस्कृति के संरक्षण के लिए भी हुए।
• विद्रोहियों वे नयी शासन व्यवस्था और ब्रिटिश राज द्वारा थोपे गये नियमों व कानूनों का विरोध किया।
• आदिवासी मुख्यतः बाह्य जगत व शासन के प्रवेश से अपनी जीवन शैली, संस्कृति एवं निर्वाह व्यवस्था व मे मे उत्पन्न हो रहे खलल को दूर करना चाहते थे।
• उल्लेखनीय बात थी कि मूलतः आदिवासियों के द्वारा आरंभ विद्रोहों में छत्तीसगढ़ के गैर आदिवासी भी भागीदार बने वस्तुतः विद्रोहों मूलतः गैर छत्तीसगढ़ी बाहरी लोगों और शासन के विरूद्ध था।
छत्तीसगढ़ के प्रमुख विद्रोह
हल्बा विद्रोह (1774-79) :- राजा दलपतदेव (1731-74 ई.) के समय, यह बस्तर के इतिहास की प्रमुख घटना है. यह विद्रोह 1774-79 के बीच हुआ था. इस विद्रोह का प्रारंभ 1774 में अजमेर सिंह द्वारा हुआ जो डोंगर में बस्तर के राजा से मुक्त एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना चाहते थे. उन्हें हल्बा आदिवासियों व सैनिकों का समर्थन प्राप्त था. इसका अत्यंत क्रूरता से दमन किया गया, नर संहार बहुत व्यापक था, केवल एक हल्बा विद्रोही अपनी जान बचा सका।
इस विद्रोह के फलस्वरूप बस्तर से कमजोर चालुक्य शासन का अंत हुआ व मराठों को उस क्षेत्र में प्रवेश का अवसर मिला जिसका स्थान बाद में ब्रिटिशों ने ले लिया।
परालकोट विद्रोह (1825):- परालकोट विद्रोह मराठा और ब्रिटिश सेनाओं के प्रवेश के विरोध में हुआ था. इस विदोह का नेतृत्व गेंदसिंह ने किया था और उसे अबूझमाड़ियों का पूर्ण समर्थन प्राप्त था।
विद्रोहियों ने मराठा शासकों द्वारा लगाए कर को देने से इंकार कर दिया और बस्तर पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की।
तारापुर विद्रोह (1842-54) :- बाहरी लोगों के प्रवेश से स्थानीय संस्कृति को बचाने के लिये अपने पारंपरिक सामाजिक, आर्थिक,राजनीतिक संस्थाओं को कायम रखने के लिये एवं आंग्ल-मराठा शासकों द्वारा लगाए गये करों का विरोध करने के लिये स्थानीय दीवानों द्वारा यह विद्रोह प्रारंभ किया गया।
माड़िया विद्रोह (1842-63):- इस विद्रोह का मुख्य कारण सरकारी नीतियों द्वारा आदिवासी आस्थाओं को चोट पहुंचाना था, नरबलि प्रथा के समर्थन में माड़िया जनजाति का यह विद्रोह लगभग 20 वर्षों तक चला।
1857 का विद्रोह
1857 विद्रोह के दौरान दक्षिणी बस्तर में ध्रुवराव ने ब्रिटिश सेना का जमकर मुकाबला किया. ध्रुवराव माडिया जनजाति के डोरला उपजाति का था, उसे अन्य आदिवासियों का पूर्ण समर्थन हासिल था।
कोई विद्रोह (1859)
1857 के विद्रोह के समय गोंड जनजाति समूह ने भी ब्रिटिश राज्य को चुनौती देते हुए अनेक युद्ध किए. 1859 में दक्षिणी बस्तर में एक नये विद्रोह की शुरूआत हुई। यह मूलतः आदिवासियों के वनों पर अधिकार की मांग व शोषण के विरूद्ध था. विद्रोहियों ने ठेकेदारों को साल वृक्ष काटने से रोकने के लिए हथियार उठा लिये। इनका नारा था- एक साल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर।
मुड़िया विद्रोह (1876):- 1867 में गोपीनाथ कापरदास बस्तर राज्य के दीवान नियुक्त हुए और उन्होंने आदिवासियों का बड़े पैमाने पर शोषण आरंभ किया. उनका विरोध करने के लिये विभिन्न परगनों के आदिवासी एकजुट हो गये और राजा से दीवान की बर्खास्तगी की अपील की. किन्तु यह मांग पूरी न होने के उन्होंने 1876 में जगदलपुर का घेराव कर लिया. राजा को किसी तरह अंग्रेज सेना ने संकट से बचाया. उड़ीसा में तैनात
ब्रिटिश सेना ने इस विद्रोह को दबाने में राजा की सहायता की।
भूमकाल विद्रोह (1910) :- 1910 में हुआ भूमकाल विद्रोह बस्तर का सबसे महत्वपूर्ण व व्यापक विद्रोह था. इसने बस्तर के 84 में से 46 परगने को अपने चपेट में ले लिया. इस विद्रोह के प्रमुख कारण थे।
आदिवासी वनों पर अपने पारंपरिक अधिकारों, भूमि व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के मुक्त उपयोग तथा अधिकार के लिये संघर्षरत् थे. 1908 में जब यहाँ आरक्षित वन क्षेत्र घोषित किया गया और वनोपज के दोहन पर नियंत्रण लागू किया गया तो आदिवासियों ने इसका विरोध किया।
अंग्रेजों ने एक ओर तो ठेकेदारों को लकड़ी काटने की अनुमति दी और दूसरी ओर आदिवासियों द्वारा बनायी जाने वाली शराब के उत्पादन को अवैध घोषित किया।
विद्रोहियों ने नवीन शिक्षा पद्धति व स्कूलों को सांस्कृतिक आक्रमण के रूप में देखा. अपनी संस्कृति की रक्षा करना ही उनका उद्देश्य था।
पुलिस के अत्याचार ने भूमकाल विद्रोह को संगठित करने में एक और भूमिका निभायी।
उक्त सभी विद्रोहों का आंग्ल-मराठा सैनिक दमन करने में सफल रहे व विद्रोहियों को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता नहीं मिल सकी. पर राजनीतिक चेतना जगाने में यह सफल रहे. सरकार को भी अपने नीति निर्माण में इनकी मांगों को ध्यान में रखना पड़ा. 1857 के महान् विद्रोह के उपरांत भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप न करने की अंग्रेज नीति ऐसे ही विद्रोहों का परिणाम थी. कालांतर में इन विद्रोहों के आर्थिक कारकों ने नवीन भारत के नीति निर्माण में भी मार्गदर्शन किया।
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